स्पेशल रिपोर्ट : दिल्ली में 24-25 फरवरी 2020 को हुए दंगों में पूर्व पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक ने सब कुछ पलट डाला
नई दिल्ली : ‘युद्ध मैदान में घोड़े पर सवार नेपोलियन सबसे आगे चला करता था। पीछे सिपाहियों की सेना होती थी। पहली गोली नेपोलियन और उसका घोड़ा झेलते थे। युद्ध के बाद नेपोलियन अपने घायल जवानों की हौसला अफजाई के लिए पहले उनसे हाथ मिलाता था। फिर उन्हें अपने आगे-आगे चलाकर खुद घोड़े पर सवार होकर पीछे-पीछे चला करता था।’
दिल्ली में 24-25 फरवरी 2020 को हुए के दंगों में पूर्व पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक ने सब कुछ पलट डाला। निरीह जनता गोली ईंट-पत्थर झेलकर मर रही थी। लेट-लतीफ जिला पुलिस अफसरान नौकरी बचाने के रास्ते खोज रहे थे। पुलिस के लीडर मतलब कमिश्नर साहब (अमूल्य पटनायक) का कहीं अता-पता ही नहीं था।
मीडिया के साथ विशेष बातचीत के दौरान यह बेबाक लानत-मलामतें उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह ने दीं हैं। दिल्ली पुलिस के पूर्व आयुक्त अमूल्य पटनायक को। विक्रम सिंह 1974 बैच यूपी कैडर के पूर्व वरिष्ठ आईपीएस और अपने जमाने की पुलिस के दबंग एनकाउंटर स्पेशलिस्ट हैं।
सन् 1976 में पुलिस ट्रेनिंग के बाद विक्रम सिंह की पहली पोस्टिंग यूपी के मिजार्पुर में बतौर सहायक पुलिस अधीक्षक हुई थी। एएसपी बनने के चंद दिन बाद ही विक्रम सिंह ने विंध्याचल के जंगलों में उस जमाने के दो हजार रुपये के इनामी खूंखार डाकू बखेड़ी को जंगल में घेरकर मार डाला था। कुल जमा तीन-चार पुलिस वालों (सब इंस्पेक्टर विजय बहादुर सिंह, ड्राइवर कांस्टेबिल गंगा विष्णु और 200 गोलियां एक साथ दागने वाली थॉमसन मशीन कार्बाइन यानी टीएमसी के साथ मौजूद हवलदार दीना नाथ) के बलबूते। पुलिस अफसर विक्रम सिंह की पुलिसिया जिंदगी का वो पहला खूनी एनकाउंटर था।
जंगल में दो चार हवलदार सिपाहियों के बलबूते अकेले ही डाकूओं से भिड़ जाने वाले विक्रम सिंह दिल्ली के जाफरबाद, मुस्तफाबाद, भजनपुरा, सीलमपुर, गोकुलपुरी में फैली हिंसा से खासे खफा हैं। उन्हीं के शब्दों में, “पुलिस ने अगर कानून की रखवाली की सोची होती तो दंगाईयों के हावी होने से पहले ही पुलिस उन पर चढ़ाई कर देती। 3-4 सौ संदिग्धों को गिरफ्तार करके जेल में ठुंसवा देती। 45 लोगों को बे-मौत मरवा डालने के बाद जो पुलिस छतों पर मौजूद ईंट-पत्थर तलाशने के लिए ड्रोन उड़ा रही थी, वह ड्रोन हिंसा फैलने से पहले ही उड़वा लिये गये होते, तो हवलदार रतन लाल, अंकित शर्मा की बलि न चढ़ी होती।”
अक्सर बेबाक और खरी-खरी टिप्पणी को लेकर चर्चाओं में रहने वाले विक्रम सिंह ने मीडिया के एक सवाल के जबाब में कहा, “संदिग्धों को वक्त रहते दबोचकर उनसे पुलिस 50-50 लाख के मुचलके भरवा लेती। तो शाहरुख खान से दंगाइयों की हिम्मत किसी दीपक दहिया से बहादुर निहत्थे हवलदार सिपाही के सीने पर पिस्तौल तानने की औकात नहीं होती।”
उन्होंने दिल्ली पुलिस के नेतृत्व की खुले तौर पर आलोचना की। बकौल विक्रम सिंह, “दिल्ली पुलिस का नेतृत्व (पूर्व पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक, संयुक्त पुलिस आयुक्त आलोक कुमार, उत्तर पूर्वी जिला डीसीपी वेद प्रकाश सूर्या) उस दिन इंद्रधनुष सा था। जब तूफान समाप्त हो गया, तब इंद्रधनुष (दिल्ली पुलिस अफसरान) प्रकट हुआ।”
उत्तर प्रदेश पुलिस के इस पूर्व महानिदेशक ने दो टूक कहा, “दरअसल, दिल्ली पुलिस के जवानों ने तीस हजारी अदालत कांड में जो कुछ बदनामी झेली, उसने उन्हें बेदम कर दिया था। रही सही कसर इन दंगों में पूर्व पुलिस कमिश्नर पटनायक पूरी कर गये। खुद मौके से गायब रहकर। पुलिस की लीडरशिप खुद को एअरकंडीशंड में बंद करके बर्गर-पिज्जा खाते रहने और कोल्ड-ड्रिंक्स पीने से नहीं चला करती है।”
तमाम सवालों के जबाब देते-देते विक्रम सिंह ने मीडिया से ही सवाल कर दिया बोले, “दिल्ली की हिंसा में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के साथ दिल्ली पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक और दिल्ली के उप-राज्यपाल अनिल बैजल क्यों नहीं अवतरित हुए? कहां थे ये दोनों पुलिस के शीर्ष नेतृत्व?”
अंकित शर्मा की दंगाइयों के हाथों जघन्य हत्या से बेहद खफा विक्रम सिंह ने कहा, “दंगाइयों में से दो चार की भी हालत अगर पुलिस ने अंकित शर्मा जैसी कर दी होती, तो न 45 बेकसूर मरते न हवलदार रतन लाल और या फिर अंकित शर्मा की दिल दहला वाली मौत होती।”
दिल्ली हिंसा के दौरान अगर आप पटनायक की जगह पर होते तो क्या उपाय अपनाते? पूछे जाने पर उन्होंने कहा, “छोड़िये भी..अगर मैं सच कहूंगा तो जमाने वाले कहेंगे रिटायर होने के बाद सब अफसर बक-बक करने लगते हैं। वरना सच तो यह है कि मेरा इतिहास उठाकर देख ले जमाना कि मैं क्या करके आया था पुलिस में गुंडों-डाकुओं के खिलाफ। मैं अगर दिल्ली का पुलिस इंचार्ज होता तो दंगाइयों को गर्दन उठाकर देखने का मौका ही नहीं देता।
मैं 24-25 फरवरी 2020 को दिल्ली में पुलिस का ‘बॉस’ होने के चलते आधा कसाई और आधा इंसान बनकर काम करता। पुलिसिंग काल, पात्र, समय, कानून के हिसाब से काम करती है। तभी उसे कामयाबी हाथ लगती है। दंगों वाले दोनो दिनों में दिल्ली पुलिस का नेतृत्व ‘सेवा-समिति’ की मानिंद पुलिसिंग करता हुआ दिखाई दे रहा था। संभव है कि मेरी यह सही और दो टूक तमाम पुलिस अफसरों को नागवार गुजरे। मगर मैं सच कैसे और क्यों छिपाऊं?”