जीवंत लोकतंत्र की पहली जरूरत, चुनाव आयोग का निष्पक्ष दिखना जरूरी

एक जीवंत लोकतंत्र की पहली जरूरत यह होती है कि वहां चुनाव कराने वाली संस्था निष्पक्ष रहे और निष्पक्ष दिखे भी। इसी से चुनावों की शुचिता बनी रहती है और आम लोगों का चुनाव प्रक्रिया में भरोसा बना रहता है। 
जीवंत लोकतंत्र की पहली जरूरत, चुनाव आयोग का निष्पक्ष दिखना जरूरी

अजीत द्विवेदी : लोकतंत्र की सफलता इस बात में निहित है कि आम नागरिक यह यकीन करे कि सरकार उसने चुनी है। जिस दिन यह विश्वास टूटेगा उस दिन चाहे कितना भी बड़ा लोकतंत्र क्यों न हो उसकी बुनियादी हिल जाएगी।

पिछले कुछ समय से भारत में चुनाव आयोग की निष्पक्षता और उसकी स्वतंत्रता को लेकर कई तरह के सवाल उठे हैं। अपने ढंग से चुनाव आयोग ने उनका जवाब दिया है और लोगों के मन में मोटे तौर पर भरोसा बनाए रखा है। परंतु मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का जो नया बिल केंद्र सरकार लेकर आई है उससे सरकार की मंशा पर संदेह पैदा होता है।

हालांकि यह सही है कि पहले भी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति केंद्र सरकार करती थी और नए बिल के कानून बन जाने के बाद भी नियुक्ति का अधिकार सरकार के हाथ में ही रहेगी। यानी वास्तविक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आने वाला है। फिर भी चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने एक अस्थायी व्यवस्था बना कर नया रास्ता दिखाया था तो सरकार का उस रास्ते से हटना संदेह को जन्म देता है।

सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल दो मार्च को एक अहम फैसला सुनाया था और कहा था कि जब तक केंद्र सरकार मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का कानून नहीं बनाती है तब तक एक पैनल उनकी नियुक्ति करेगा, जिसमें प्रधानमंत्री, देश के चीफ जस्टिस और लोकसभा में नेता विपक्ष सदस्य होंगे।

यह बिल्कुल उसी तरह की पैनल है, जो सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति करती है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग में नियुक्ति का यह सिस्टम इसलिए बनाया क्योंकि पिछले साल नवंबर में अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त नियुक्त करने के मामले में अच्छा खासा विवाद हो गया था।

आईएएस अधिकारी अरुण गोयल 30 नवंबर को रिटायर होने वाले थे। लेकिन उन्होंने 18 नवंबर को स्वैच्छिक रूप से रिटायर होने का ऐलान किया और अगले ही दिन यानी 19 नवंबर को केंद्र सरकार ने उनको चुनाव आयुक्त नियुक्त कर दिया था।

चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर 2015 में दायर एक याचिका पर सुनवाई के क्रम में अदालत के सामने यह मुद्दा भी आया और तब सर्वोच्च अदालत ने सरकार की मंशा पर सवाल उठाए थे। अदालत ने टिप्पणी की थी कि ‘बिजली की रफ्तार’ से चुनाव आयुक्त नियुक्त कर दिया गया।

सर्वोच्च अदालत ने यह भी पूछा था कि सर्च कमेटी, कैबिनेट की सिफारिश आदि जिन औपचारिकताओं का हवाला केंद्र सरकार नियुक्तियों में देती है उनका पालन एक दिन के भीतर कैसे हो गया और वह सही तरीके से हुआ भी या नहीं? इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मार्च में फैसला सुनाते हुए अरुण गोयल की नियुक्ति तो रद्द नहीं की लेकिन नियुक्ति की एक अस्थायी व्यवस्था कर दी।

अब केंद्र सरकार बिल लाकर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलटने जा रही है। संसद के मानसून सत्र में ‘मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त विधेयक 2023’ पेश किया गया। यह कानून जिस रूप में पेश किया गया उसी रूप में पास होता है तब भी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की पुरानी व्यवस्था बदलेगी लेकिन साथ ही सुप्रीम कोर्ट की बनाई अस्थायी व्यवस्था भी बदल जाएगी।

इस विधेयक के संसद से पास होकर कानून बनने के बाद तीन सदस्यों का एक पैनल चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करेगा, जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री होंगे। दूसरा सदस्य उनकी ओर से नामित एक अन्य कैबिनेट मंत्री होगा और तीसरा सदस्य लोकसभा में विपक्ष का नेता होगा। यानी दो सदस्य सरकार के होंगे और एक विपक्ष का। कहने की जरूरत नहीं है कि इस पैनल में फैसला हमेशा वही होगा, जो सरकार चाहेगी। पहले भी ऐसा ही होता था।

सवाल है कि यह कानून लाने की इतना जल्दी क्या थी? अगले साल फरवरी में तीन में से एक चुनाव आयुक्त अनूप चंद्र पांडेय रिटायर होंगे और उनकी जगह नई नियुक्ति करनी होगी। क्या सरकार नहीं चाहती है कि उस समय नियुक्ति समिति में मौजूदा चीफ जस्टिस सदस्य रहें?

बहरहाल, चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का जो पुराना सिस्टम चला आ रहा था वह भी परफेक्ट नहीं था और उसे लेकर हमेशा विवाद रहा। तभी 2012 में भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी ने तब की मनमोहन सिंह सरकार को चि_ी लिख कर अपील की थी कि पांच सदस्यों की एक कमेटी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करे और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस उस कमेटी के अध्यक्ष हों।

लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार ने उस पर ध्यान नहीं दिया और न बाद में आडवाणी की पार्टी की सरकार ने उस पर ध्यान दिया। उनके सुझाव पर आंशिक रूप से सुप्रीम कोर्ट ने ध्यान दिया और प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस व नेता विपक्ष की कमेटी बनाने का आदेश दिया।

अब केंद्र सरकार इस कमेटी में से चीफ जस्टिस को हटा रही है और उनकी जगह एक केंद्रीय मंत्री को रख रही है। इसी से सरकार की मंशा पर सवाल खड़े होते हैं।

आखिर सरकार को क्यों ऐसी कमेटी बनानी है, जिसमें उसका बहुमत हो? इस मामले में निष्पक्ष कमेटी क्यों नहीं बनाई जा सकती है? आखिर पैनल के सामने जो नाम लाए जाएंगे वो नाम तो भारत सरकार के अधिकारियों के ही होंगे और सरकार ही उनका पैनल बना कर समिति के सामने रखेगी, जैसे सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति में किया जाता है, फिर क्यों कमेटी में सरकार को अपना बहुमत चाहिए? क्या कभी किसी ने सुना है कि सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने अड़ंगा लगा दिया और इस वजह से वह व्यक्ति सीबीआई निदेशक नहीं बन सका, जिसे सरकार बनाना चाहती थी?

ऐसा कभी नहीं हुआ है। हर बार सरकार अपनी पसंद से नाम पैनल के सामने ले जाती है और अपनी पसंद के व्यक्ति को सीबीआई निदेशक नियुक्त कराती है। फिर चुनाव आयुक्तों के मामले में ऐसी व्यवस्था क्यों काम नहीं कर सकती है? जाहिर है सरकार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के मामले को संयोगों के हवाले नहीं छोडऩा चाहती है। इसलिए चीफ जस्टिस को हटा कर एक केंद्रीय मंत्री को उसमें रखने का बिल लाया गया है।

इसमें कानूनी रूप से कुछ भी गलत नहीं है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि उसका बनाया पैनल अस्थायी है और तभी तक के लिए है, जब तक संसद कोई कानून नहीं बना देती है। लेकिन सरकार को कानून बनाते हुए लोकलाज का कुछ ख्याल रखना चाहिए था। उसको चीफ जस्टिस को पैनल से हटाना था तो उसकी जगह दिखावे के लिए ही सही कोई निष्पक्ष सदस्य रखा जा सकता है।

मिसाल के तौर पर लोकसभा के स्पीकर को या उप राष्ट्रपति को सदस्य बनाया जा सकता है। तब भी सरकार की पसंद का व्यक्ति ही चुनाव आयुक्त बनता लेकिन तब लोगों के मन में शंका पैदा नहीं होती। अभी सरकार की मंशा को लेकर शंका पैदा हो रही है।

हालांकि यह दावा कोई नहीं कर सकता है कि किसी निष्पक्ष पैनल के जरिए चुना हुआ व्यक्ति हमेशा निष्पक्ष रहेगा और सरकारी पैनल से चुना हुआ व्यक्ति निष्पक्ष नहीं रहेगा आखिर सरकार की ओर से नियुक्त चुनाव आयुक्तों के कार्यकाल में ही बेहद शक्तिशाली सरकारें चुनाव हारी हैं।

फिर भी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया निष्पक्ष दिखनी चाहिए। रूस के राष्ट्रपति रहे जोसेफ स्टालिन ने एक बार कहा था कि ‘चुनाव में असली मतलब उन लोगों का नहीं है, जो वोट देते हैं, बल्कि उनका है, जो वोट गिनते हैं’। तभी वोट कराने और वोट गिनने वालों का निष्पक्ष होना और निष्पक्ष दिखना स्वस्थ व जीवंत लोकतंत्र की सबसे जरूरी शर्त है।

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